टिमटिमाते तारे

 एक ट्रक भिडंत मे बहुत बड़ा हादसा हुआ था, कार में तीन लोग सवार थे, चाचा कार चला रहे थे उन्होंने घटनास्थल पर ही दम तोड़ दिया, पिता को हल्का खरोंच आया था, अनुराग की स्थिति बहुत नाजुक थी। महीने भर बाद जाकर वो कोमा से बाहर आया था, ईश्वर की अनुकम्पा थी कि वो काल को परास्त कर आया था। जिंदगी और मौत के जंग में विजयी हो गया पर उसकी कीमत उसे तमाम उम्र भयानक परिस्थितियों का सामना करके गुजारना था। आँखो में सँजोए सभी सपने धराशायी हो गए, उसके चाचा ही उसके प्रेरणा स्रोत थे वो उनका लाड़ला भतीजा था, महीनो तक घरवालों ने उससे चाचा के देहांत की खबर छुपा कर रखी कि कही उसकी मानसिक स्थिति पर इसका बुरा प्रभाव न पड़े। अनुराग अंडर 16 स्टेट फुटबॉल टीम का कप्तान होने के साथ ही अपने स्कूल का टॉपर भी था। पढ़ने और खेल दोनो मे होनहार होने के कारण घर-परिवार और स्कूल में सबका चेहता था। वो दो साल तक स्कूल की शक्ल नही देख सका, उसके शरीर में तीव्र गति का कम्पन रहता, एथलेटिक शरीर वाला अनुराग बिना सहारे के दो कदम चलने मे असमर्थ था। उसका देखभाल करने के लिए माँ ने नौकरी छोड़ दी, ये उन्हीं के अथक प्रयास का नतीजा था कि वो पहले माँ के सहारे से फिर एक साल बाद छड़ी लेकर चलने में समर्थ हो पाया था। माँ उसके साथ साया जैसा हमेशा साथ रहती अनुराग उनका एकलौता बेटा था, जिसके चहलकदमी से घर गूंजता था वहाँ खामोशी का बसेरा हो गया था। अकसर रोता, माँ को देख आँसू छिपाने की असफल प्रयास करता। संगी-साथी सबका साथ छूट गया था, कक्षा के सभी विद्यार्थी उससे दो-तीन कक्षा आगे निकल गए थे और उसकी जिंदगी घर की चाहरदीवारी में कैद हो गई थी। शारिरिक दुर्बलता ने उसे मानसिक तौर से भी कमजोर कर रखा था। घरवाले उस मनहूस घड़ी को कोसते जब दिल्ली जाने की योजना बनायी थी, सच किस्मत पर कोई जोर नही चलता सारे मनसूबे धरे रह गए। पड़ोसी कहते अब इसे पढ़ाओ मत, ये कहा पढ़ पायेगा? उसके साथी उसे हेय दृष्टि से देखने लगे, कुछ उस पर तरस खाते तो शिक्षक सहानुभूति रखते थे? उसे लगता वो सबके उपहास का पात्र होकर रह गया है। उसके ममेरे भाई-बहन ने हार नही मानी उसकी पढ़ाई में मदद करते, हौसला बढ़ाते हर तरह से प्रोत्साहित करते, उनके सहयोग के कारण ही अनुराग फिर से पढ़ाई के लिए हिम्मत जुटा पाया। 

इस अनुराग में हिम्मत की कमी नहीं थी पर बुद्धि पहले जितनी तीव्र न थी, न ही वो चपलता थी, शारिरिक दुर्बलता के कारण वो आधा घंटा भी बैठ नहीं पाता था तो अपनी विवशता पर रोता। डॉक्टर ने उसे ज्यादातर लेटने को ही बोला था, उसके कमर और रीढ़ की हड्डियों में इतना ताकत नही था कि ज्यादा देर मजबूती प्रदान कर सके। अपनी मेहनत से वो लगभग 45 प्रतिशत अंक ला रहा था इसलिए उसे शारिरिक विकलांग कैटेगरी में नही रखा जा सकता। दुर्घटना ने उसे दिलोदिमाग, शरीर और आँखों से भी दुर्बल बना दिया था। आँखों की रोशनी पर भी गहरा असर हुआ था इसलिए कंप्यूटर और टेलीविजन भी देखने को मना था। माँ-बाप बच्चे को भरसक पूरा सहयोग कर रहे थे पर उसकी वो पीड़ा दूर नही कर पा रहे थे जिसने उसे इतना बड़ा आघात दिया था। अपनी हिम्मत और लगन से दसवीं पास कर लिया, अभिभावकों ने उसके लिए होम ट्यूशन लगाया जहाँ वो सोकर क्लास करता था। जब वह बारहवीं की परीक्षा दे रहा था तो तेज बुखार से उसके आँखों की बची-खुची रोशनी भी चली गई उसकी दुनिया पूर्णतया अंधकारमय हो गई। एकबार तो लगा कि अनुराग से जिंदगी ने दूसरा मौका भी छीन लिया पर उसने हार नहीं मानी, उसने भी ठान लिया चाहे लाख विपदायें आये वो कुछ बनकर ही दिखायेगा। उसे घरवालों से अपने कजिन से पूरा सहयोग मिला। उसके कजिन ने उसे नेत्रहीन संस्था से जोड़ा, वहाँ उसने कंप्यूटर और ब्रेललिपि सीखी। उसे लगने लगा अभी बहुत कुछ बाकी है जिंदगी ने उससे सबकुछ नही छीना। उसके कजिन ने उसके लिए किताबों की रिकॉर्डिंग करायी। अनुराग ने सुन सुनकर उन्हें कंठस्थ किया और अपनी पढ़ाई पूरी की। उसको अपने चाचा की याद आयी, वो नेत्रहीन बच्चों के लिए लिखने का काम किया करते थे। चाचा ने बताया था कि "कैसे एक होनहार छात्र सड़क हादसे में अपनी आंख गवा चुका था और वो उसके राइटर थे।" राष्ट्रपति भवन दिल्ली में सुबह उस लड़के के लिए लिखने जाते थे। गणित का परीक्षा चल रहा था, एक घंटे के अंदर बच्चा बोला "भैया 50 अंक तक का पेपर यदि हो गया है तो बस रहने दे, आपका हाथ दुख रहा होगा, लाइए आपके उंगलियों और  हाथों की मालिश कर दूं।" ये निश्छल बात सुन उसके चाचा के आँखों मे आँसू आ गए थे और वो जबतक जीवित रहे नेत्रहीन बच्चों की संस्था से जुड़े रहे। कईबार लोगों के रवैये और उपेक्षा से उसका हिम्मत टूटा पर उसके पास अभिभावकों का और कजिन का सहयोग था जिन्होनें कमजोर पलों में उसे बिखरने नही दिया। उसका भी निश्चय अटल था, वो एकजुट होकर मेहनत करता रहा और आखिरकार आरएएस में दिव्यांग श्रेणी में चयनित हुआ। अनुराग ने यहाँ ही रुकने को नहीं सोचा हैं अभी उसने यू पी एस सी (UPSC) उत्तीर्ण करने की ठान रखी हैं उसके अंदर का खिलाड़ी का जज्बा जिंदा है। अनुराग इस नभमंडल में वो टिमटिमाता तारा है जिसने लाख बाधाओं के उपरांत भी अपने सपनों को पंख दिया और अपनी चमक को धूमिल नही होने दिया। आज वो बहुत सारे बच्चों को लिये जीती जागती मिसाल है। 

"लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, 

कोशिश करने वालो की कभी हार नहीं होती।

"नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर सौ सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना नहीं अखरता है।
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।"
       अनुराग प्रत्येक बच्चे को सोहन लाल द्विवेदी के इन पंक्तियों से प्रेरणा लेने को बोलता है।


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