ये खिड़की जो बंद रहती है

  प्रेम आकर्षण से नहीं संयोग से शुरू होता है और जीवन पर्यन्त ये भाव जीवित रहता है। समर्पण और निस्वार्थ भाव ही प्रेम की पराकाष्ठा है। ऐसे ही किसी संयोग से रचना की ज़िंदगी में भी प्रेम का आगमन हुआ था। प्रेम वो ठंडी हवा का झोंका था जिसने रचना के जीवन मे अनगिनत रंग भर दिये थे, ऊँची महत्वकांक्षाओ वाली लड़की को प्रेम ने मोहपाश के बंधन में जकड़ लिया था जिससे वो कभी भी उनमुक्त नहीं होना चाहती थी ऐसी ही थी प्रेम की रचना।

      आरती की सहपाठिनी एकमात्र लड़की क्रश उसके घर पर अतिथि थी। रचना यही नाम था उस साँवली सलोनी मराठी लड़की का जो उसकी नजरों में अत्यधिक सुंदरता और शालीनता की परिचायक थी पर कभी कहने का साहस नहीं जुटा पायी। उसके जैसी कोई लड़की नहीं थी, वो पढ़ने में भी अव्वल थी, शीघ्र ही लोगों से घुलमिल जाती, वाणी में भी मिठास था और अभिमान उससे परे था। वो आरती की दोस्त थी उसने परास्नातक एक साल पहले कर लिया था, आरती ने शिक्षिका बनने की प्रशिक्षण ली इसलिये एक साल पीछे रह गयी, वो अंतिम वर्ष में थी। रचना ने पीजीआई में अनुवांशिकी विभाग में अनुसंधान क्षेत्र (रिसर्च) में प्रवेश लिया था, जब तक उसे छात्रावास नहीं मिल जाता तब तक साथ ही रहने वाली थी। रचना के मिलते ही उसने अपने जीवन का धेय बदल दिया, पहले उसने स्वयं को एक शिक्षिका के रूप में देखा था रातोंरात उसके सपने उनमुक्त होकर अनुसंधान क्षेत्र में अपना भविष्य देखने लगे। उसने देखा एक सप्ताह में रचना की रंगत बदल गयी थी, अब वो छोटे शहर वाली लड़की नहीं एक शोध छात्रा थी। वो दिनभर के अनुुुभव आरती को सुनाती जब रात्रि भोजन के पश्चात दोनों टहल रहे होते थे, फिर वो दिन भी आया जब उसे छात्रावास (होस्टल) मिल गया अगली सुबह वो चली जायेगी। उसे प्रत्येक दिन अलीगंज से रायबरेली रोड़ तक का सफर तय करना पड़ता था थक कर चूर-चूर हो जाती थी, आज आरती का मन दुखी था पर रचना के लिए हर्षित थी। आरती को बहुत सारे सपने दिखा कर रचना उससे हर शनिवार सायं को आने और सोमवार को सबह जाने का वादा करके चली गयी। आरती के कानो में बस यही शब्द गूूंजते रहे "तुुुझे पता है मैं बीटा थैलसीमिया पर रिसर्च कर रही हूं।" उसने कहा था हा अनुवांशिक रोगो में पढ़ा था इससे पहले केंद्रीय विद्यालय में पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पोते आये थे और प्रधानाचार्य ने उनका परिचय ये कहकर कराया था कि उन्होंने मंगल शब्द पर पीएचडी की है तब पहली बार पता चला था कि एक शब्द पे भी पोथी लिखी जा सकती है। कुछ सप्ताह तक वो नियमवत आती रही फिर उसका आना-जाना बंद हो गया वो अपने काम मे व्यस्त हो गयी आरती परीक्षा देंने में व्यस्त थी इसलिए उसने भी आने का आग्रह नहीं किया।

       इसबार वो पूरे दो महीने बाद आयी थी उसके चाल-ढाल मे अत्यधिक बदलाव था बात करते-करते बीच मे खो जाती थी, ये वो रचना नहीं थी जिसे वो वर्षो से जानती थी। आरती ने खाना खाते समय उसको कुहनी से ठेलते हुए पूछा ये कहा खोयी हुई है हमारी मिस इंटेलीजेंट? अभी टहलने चलेंगे तो बताऊँगी आंटी के सामने नही बता पाऊँगी वो धीरे से फुसफुसायी। टहलते हुए बताया था उसने कि एक मराठी रेसिडेंट डॉक्टर (निवासी चिकित्सक) से प्यार हो गया, डॉक्टर का उपनाम नामदेव था और एक जाति होने के नाते इस रिश्ते को स्वीकृति देने मे घरवालो को कोई परेशानी नहीं होगी। रचना ने पूछा कि सच में प्यार ही हुआ है न या डॉक्टर देखकर फिसल गयी। रचना के आँखों के कोर में आसू बह निकले थे और ये बात आरती से बेहतर कौन जान सकता था कितना मनुहार करना पड़ा था उसका क्रोध शान्त करने के लिये दोनों ने आँखों-आँखों मे काटी थी वो स्याह रात। उसने कहा इसबार वो तीन दिन के लिए आयी थी उसे डॉक्टर नामदेव के लिये हरतालिका तीज का व्रत रखना था। ये सुनकर आरती चौंक गयी थी ये क्या हो गया है तुम्हे? भला ऐसे किसी के लिए कोई उपवास रखता है क्या?  वो भी किसी अजनबी के लिए? पर वो जिद पर अड़ी रही उसे विधिपूर्वक तीज व्रत डॉक्टर नामदेव के लिए करना है बस और इसके आगे कोई प्रश्न नहीं।

      उस डॉक्टर के लिए व्रत रखना था जो उसके अस्तित्व से अनभिज्ञ था पर प्यार के भी क्या कहने अच्छे खासे इंसान को दिन में तारे दिखा देता है। पूरा दिन मूसलाधार पानी बरसता रहा और वो नियम पूर्वक शिव मंदिर गयी पूजा अर्चना किया, निर्जल व्रत रखा गया उसकी एकाग्रता और तन्मयता देखकर आरती को उसकी माँ उलाहने देते हुए बोली थी "रचना से कुछ सीख लो, देखो एक वो भी लड़की है पूजा पाठ करती है व्रत रखती है और एक तुम्हे सो उठकर भूख लगती है।" उस दिन बेइज्जती मे जो बढ़ोतरी हुई थी आरती भी आश्चर्य चकित थी, उसकी सुकोमल दोस्त कैसे चौबीस घंटे निर्जल व्रत रखकर अगले दिन प्रातः शिवमंदिर में गौरीशंकर को जल अर्पण करने और दक्षिणा देने के पश्चात ही पानी गृहण की थी उसे ये सब उस डॉक्टर नामदेव का जादू टोना लग रहा था। क्या सच मे प्यार में इतनी ताकत थी वो भी इकतरफा प्यार में। अब तो उसे अतिशीघ्र उस डॉक्टर से मिलने की लालसा जागृत हो गयी थी जिसने उसकी दोस्त को छीन लिया था इतनी हँसमुख लड़की की उनमुक्त हँसी गायब हो गयी थी ये कुछ भी था परंतु अव्वल आने वाली छात्रा के लक्षण नहीं थे दसवीं कक्षा से लेकर परास्नातक तक वो श्रेष्ठतम छात्रा रही थी। करियर के आगे उसे किसी और चीज़ की चाह नही थी और आज उसका धेय पीछे हो गया था और उसके आसपास का वातावरण उसके लिए प्रेममय हो गया था। आरती की माँ से स्वीकृति लेकर जाते समय उसे छात्रावास आने का निमंत्रण देकर चली गयी थी। प्रायोगिक परीक्षा समाप्त होने के बाद आरती पीजीआई में अनुवांशिकी विभाग की प्रयोगशाला में रचना के साथ थी। इतने दिनों में उसने अनुसंधान (रिसर्च) करने का पूरा मन बना लिया था ऊपर से माँ की भी स्वीकृति मिल गयी थी, हालाँकि परास्नातक करते वक्त उसका धेय एक शिक्षिका बनने का ही था।

      रचना ने छात्रावास पहुँचकर उसे सबसे पहले वो खिड़की ही दिखायी थी जहाँ उनदिनों उसका ठिकाना था। आरती ने खिड़की के ओर बेमन से देखते हुए बोला ये तो बंद है और तुम्हे यहा से क्या दिखता है? उसको छेड़ते हुए गाना गुनगुना रही थी "बड़ी उलझन है दिल की दुश्मन है ये खिड़की, ये खिड़की जो बंद रहती है" और वो ऐसे चिढ़ रही थी जैसे उसने ताजा घाव कुरेद दिये थे। ततपश्चात उसने जो वृत्तांत सुनाया और दिखाया उसे देखकर आरती को लगा कि ये दूरवीन लेकर यही बैठी रहती है क्या? डॉक्टर का उसने अजीबोगरीब अचरज करने वाला अनुमान लगा रखा था, ये आंकलन करना सरल कार्य नहीं था उसके पास डॉक्टर के हर पल का आकड़ा था। वो रिसर्च डॉक्टर पर कर रही थी या बीटा थैलसीमिया पे ये असमंजस की बात थी। वो डॉक्टर रात को नौ बजे फ़ोन पर आता था फिर साढ़े नौ बजे फ्लास्क में पानी लेकर रूम में चला जाता था करीब दस बजे वरांडा का लाइट बंद करने आता था तब तक रचना उनकी एक झलक पाने के लिए समय से आकर वहा बैठ जाती थी। आरती को उसकी ये हरकते हास्यास्पद भी लग रही थी और उसपर तरस भी आ रहा था उसकी दोस्त पूर्णतया समय-सारणी (टाइम टेबल) हो गयी थी पूरे एक महीने से डॉक्टर के आम दिनचर्या से परिचित थी पर अपना परिचय उस डॉक्टर को नहीं करा पायी थी। डर था उसे कही कह दिया तो वो संभल नहीं पाएगी या बात कही आगे तक पहुँच कर बिगड़ न जाये, गाइड के पास या डायरेक्टर के पास शिकायत न चली जाए। विज्ञान के विद्यार्थी और डर एक साथ जीते हैं फिर छोटे शहर प्रयागराज (इलाहाबाद) से आयी एक सीधी-सादी लड़की, सब लोग क्या कहेंगे यही सोचकर सहम जाती थी। रात को ठीक आठ बजे दोनो कैंटीन (मेस) में खाना खाने आयी रचना ने उसे बोला था सामने के पंक्ति में जो डॉक्टर बैठेंगें उन्हें ध्यान से देखना। आरती को उनमे एक बड़ा प्यारा लंबी डील डौल वाला डॉक्टर दिखा बाकी कोई नजर आया ही नहीं। खाना खाकर कमरे मे पहुँचे तो रचना ने बोला "देखा तुमने उस डॉक्टर को कितने अच्छे हैं न वो।" आरती हा वो सबसे लंबे वाले जिनकी नाक लंबी थी अच्छे लग रहे थे सोच रही हूँ एक दो दिन और रुक जाऊ यहाँ अब मेरा मन भी लग जायेगा।  आरती आदत से मजबूर प्यार-व्यार में कोई विश्वास नहीं था पर हां अपने रुकने की एक वजह ढूँढ लेती थी। उसका कहना होता अरे इन सब चक्करों में नहीं पड़ना है करियर बनाने का धुन था उसके लिए प्यार एक हादसा था। उसकी दोस्त के साथ कोई हादसा न हो उसे इन परेशानियों से बस दूर रखना चाहती थी। उस लंबे डॉक्टर पे ही निगाहें टिकी रह गयी दूसरे डॉक्टर पर ध्यान ही नही गया। उसका मानना था सारे सुंदर लड़के लड़कियां डॉक्टर बनने के लिए ही होते हैं, एक सुंदर डॉक्टर के हाथों या बाहों में मरने का सुख कितना अच्छा होता होगा? उसके खूबसूरत सपनो में एक सपना था कि वो इतनी बीमार पड़े की सब लोग उसे फूलों के गुलदस्ते लेकर अस्पताल मिलने पहुचे बस लोग आते रहे उससे मिलते रहे फिर कौन कमबख्त जीना चाहता है ? कहने का तात्पर्य ये था लोगों का पूरा ध्यान उसे अपनी ओर आकर्षित करना था उसके लिए मरना भी स्वीकार था। उसके सपने विचित्र थे, उस रात भी दोनो सोयी नही। सुबह fm पर बड़ा अच्छा गाना बज रहा था मुकेश-लता का गाया युगल गीत "किसी राह में किसी मोड़ पे कही चल न देना मुख मोड़ के मेरे हमसफर" आरती ने बोला यहा दूरवीन लेकर हमसफ़र ढूंढना पड़ रहा है कहते हुए खिड़की के पास चली गयी, आज खिड़की खुली थी पर कोई नजर नहीं आया। अगर वो लंबू डॉक्टर मिल जाये तो मैं तो मरने को भी तैयार हूं आज रात्रि भोजन के लिए आरती ज्यादा उत्सुक थी। आज डॉक्टर नामदेव जल्दी आ गए थे आरती को कोई खास नहीं लगे हा उसकी आंखें जिसे ढूँढ रही थी वो कही नहीं नजर आया। ये रचना की तन्मयता ही थी कि डॉक्टर के मेस आने जाने से लेकर सब लेखा-जोखा उसके पास हुआ करता था हो सकता है आज के युवा उसे स्टॉकिंग नाम दे,परंतु 1999-2000 में ये एक प्रयास होता था उस समय मोबाइल फोन नहीं होता था जिनके पास होता भी था वो अपना नम्बर नही देते थे। 

        होस्टल पहुँचकर आरती ने पूछा था "जिसके लिए तीज व्रत रखा था उसके लिए करवाचौथ भी रखना है क्या? या दोनो साथ रखने वाले हो? इस चींटी की गति से चलोगी तो उसके लिए कोई और करवाचौथ रखेगी।"

"क्या करूँ कितने बार सोचा हिम्मत ही नहीं जुटा पायी मैं तो औपचारिकता भी नहीं निभा पा रही" रचना ने प्रतिवाद किया। 

तो आगे क्या सोचा है करवाचौथ किसी और के लिए रखना है। रचना गुस्से में तिलमिला उठी पर जानती थी कि उसकी दोस्त उसे उकसा रही थी, जब सिर ओखली में दे ही दिया है तो मूसलों से कैसा डर? चलो अभ्यास करा देती हूं की डॉक्टर से क्या बोलना है ?

अरे नही, अभी नही, दो दिन बाद मेरा पहला सेमिनार है तुम प्रारुप (प्रेजेंटेशन) में मेरी सहायता करो, तुम रहोगी तो ढाढ़स बढ़ा रहेगा मेरे रिसर्च का पहला सेमिनार है मेरे रिसर्च का पहला सेमिनार है और तुम्हें उसदिन तक मेरे साथ रहना है। अब खिड़की के पास दो कुर्सी लगती थी दोनो डॉक्टर के आने का इंतजार करते, बाकी सेमिनार के अभ्यास और तैयारी में समय चला जाता। सेमिनार सुबह नौ बजे तक हो जाता था रचना घबराहट और शीघ्रता के चक्कर मे उसदिन उल्टा सलवार पहनकर चली गयी थी। सेमिनार बहुत अच्छा हुआ था गाइड से लेकर सभी ने बहुत सराहा भी था वो बहुत प्रसन्न थी।

      आरती बोली आज तुम्हारे डॉक्टर से बात करके घर जाऊंगी माँ को दो तीन दिन बोला था पूरे पाँच दिन हो गए यहां पर मुझे। कही उसे बुरा न लग जाये क्या ये सोचकर तुम उसे कभी बताओगी नहीं, फिर तो पक्का उसका विवाह किसी और से ही होगा। नहीं मुझे उनसे ही व्याह करनी है व्रत भी उन्हीं के लिए रखा था तुम तो जानती हो रचना बोली।

अब वो डॉक्टर तुम्हारे लिए माननीय हो गया एकबार बात तक तो हुयी नहीं। कल तुम जब लैब जाओगी मैं भी 'तुम्हारे उनसे' बात करके  घर चली जाऊंगी रात भर तुम्हारे सेमिनार के चक्कर में जगी हूँ बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना अब सोने दो। 

 सुबह इलेक्ट्रिक हीटर पर आरती ने ही चाय और मैगी बनायी और अपनी दोस्त को आश्वस्त किया कि वो निश्चिंत होकर जाये वो अच्छे से ही बात करेगी घर जाने से पहले उसे चाभी देने आएगी तो क्या बात हुआ ये भी उस समय बता देगी।

आरती ने हिम्मत जुटा कर डॉक्टर को फ़ोन किया इसबार  दूसरी तरफ से एक मोटी आवाज में 'हेलो' सुनायी पड़ा पर आरती के मुख से बोल नही फूटे , थोड़ा सम्भल कर रॉंग नम्बर कहकर फोन रख दिया था। वो घर जाकर ही फोन कर पायेगी ये कहकर वो घर चली गयी। 

        फोन पर उसने डॉक्टर को अपनी दोस्त की भावनाओं से अवगत कराया और बड़ी ही निडरता से उसका रूम नम्बर, विभाग, नाम सब बता दिया ये भी बताया कि वो किस विषय पर रिसर्च करती है लेकिन दूसरी तरफ का भाव कुछ समझ नहीं आया उसने बड़ी परिपक्वता से बात सुनी पर कुछ उत्तर नहीं दिया। आरती को लग रहा था कि अब उसकी दोस्त का क्या होगा? पर कुछ नहीं हुआ वो बात वहीं खत्म हो गयी। इसी बीच दशहरा की छुट्टी में रचना घर गयी और वो खिड़की हमेशा के लिए निशब्द बंद हो गयी। डॉक्टर नामदेव वहा से चंडीगढ़ पीजीआई चले गये अपने परिवार के पास इसके साथ ही वो किस्सा भी अपने संग ले गए।

       इधर रचना अपने रिसर्च में व्यस्त हो गयी उसकी दोस्ती धीरे-धीरे अपने लैब के अन्य लड़के-लड़कियों से होने लगी। उसके ही ब्लॉक में सामने वाले रूम में आनेवाला एक सलोना हमउम्र लड़का लैब में नया शामिल प्राणी था जो उसकी जिंदगी में प्रेम लेकर आ गया। जी हां उसका नाम था प्रेम साहनी, लड़का अच्छा था बहुत मिलनसार भी था एकबार आरती उससे मिली थी उसदिन दोनों अगले दिन के सेमिनार के प्रारूप की तैयारी कर रहे थे, आरती दोनो की सहायता कर रही थी उस रात दो बजे तक स्लाइडस बनायी गयी थी। इसके बाद बहुत कम दोनों दोस्तों की बात हो पायी आरती जब भी फोन करती तो रचना रूम पर मिलती नहीं थी उसकी जिंदगी व्यस्त हो गयी थी, या तो लाइब्रेरी या प्रेम के रूम पर होती थी। एकबार आरती की बात हुई तो उसने कहा प्रेम की तबियत बहुत खराब थी इसलिये वो रूम पर नहीं आयी। दोनों एक विषय में ही रिसर्च कर रहे थे और एक ही गाइड के साथ थे तो करीब आ गए और शीघ्र ही दोनो विवाह के बंधन में बंध गए।

      उस समय एक खिड़की हमेशा के लिये बंद हुई थी एक नयी खिड़की उसके योग्य अभ्यर्थी के समक्ष खुलने के लिए। आरती की अंतिम बार जब उससे बात हुई थी तो दोनो पोस्ट डॉक्टरेट फेलोशिप के लिए कनाडा जा रहे थे और बहुत ही खुश थे अन्ततः रचना को उसका प्रेम मिल गया था जो उसके साथ करवाचौथ और तीज का व्रत अभी तक रखता आ रहा है।


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